Ranchi: रामगढ़ के नेमरा स्थित पैतृक गांव में राजकीय सम्मान के साथ दिशोम गुरु शिबू सोरेन का अंतिम संस्कार किया गया. शिबू सोरेन का पार्थिव शरीर उनके पैतृक आवास से पारंपरिक रीति-रिवाजों को पूरा करने के बाद बाहर निकाला गया है. दोनों पुत्र हेमंत सोरेन और बसंत सोरेन समेत अन्य परिजनों ने मिलकर पार्थिव शरीर आवास से बाहर निकाला. पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत दिशोम गुरू शिबूसोरेन को नम आंखों से हजारों लोगों ने अंतिम विदायी दी.
उनका अंतिम दर्शन पाने के लिए लोगों का जन सैलाब उमड़ पड़ा था. सभी की आंखें नम थीं. देश के कई जाने माने नेता वहां पर मौजूद थे. घाट पर ले जाने की तैयारी के दौरान पत्नी रूपी सोरेन फफक कर रो पड़ी. इस दौरान वहां पर जितने लोग मौजूद थे सबकी आंखें नम हो गयी थी. गुरु जी को अंतिम विदाई देने के लिए बड़ी संख्या में लोगों का जनसैलाब उमड़ पड़ा है. पूरा नेमरा गांव गमगीन हो चुका है.
झारखंड को शिबू सोरेन ने दी थी पहचान
81 वर्षीय शिबू सोरेन को लोग ‘दिशोम गुरु’ कहते थे. आदिवासी समाज को उनकी पहचान और अधिकार दिलाने के लिए जीवनभर संघर्ष किया. 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के संस्थापक और तीन बार के मुख्यमंत्री रहे शिबू सोरेन ने न केवल आदिवासी समाज के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि अलग झारखंड राज्य के निर्माण में भी निर्णायक भूमिका निभाई. शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन एक स्कूल शिक्षक थे, जिन्हें महाजनों ने जमीन हड़पने के लिए धोखे से मार डाला. इस घटना ने युवा शिबू के मन में गहरी छाप छोड़ी और उन्हें साहूकारों व शोषकों के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी. गरीबी और सामाजिक अन्याय के खिलाफ उनकी आवाज नेमरा की गलियों से निकलकर पूरे झारखंड में गूंजी. उन्होंने 1969-70 में नशाबंदी, साहूकारी और जमीन बेदखली के खिलाफ जनांदोलन शुरू किया, जिसने उन्हें आदिवासी समाज का नायक बना दिया.1980 के दशक में शिबू सोरेन ने बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की नींव रखी. 1987 में झामुमो की विशाल जनसभा में उन्होंने अलग झारखंड राज्य के लिए निर्णायक लड़ाई का आह्वान किया. 1989 में उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा देकर केंद्र सरकार को 30 मई तक अलग राज्य की मांग पूरी करने का अल्टीमेटम दिया. छोटानागपुर अलग संघर्ष समिति के सदस्य के रूप में उन्होंने साहूकारों और सूदखोरों के खिलाफ आंदोलन को तेज किया. झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद के 180 सदस्यों में से 89 के साथ वे इस संघर्ष में शामिल रहे. उनकी यह लड़ाई 2000 में झारखंड राज्य के गठन के साथ पूरी हुई, जो उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी.
हत्या के आरोप में छोड़ना पड़ा था मंत्री का पद
शिबू सोरेन का राजनीतिक जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा. वे तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनकी राह आसान नहीं थी. 2004 में यूपीए-1 सरकार में कोयला मंत्री बने. लेकिन एक पुराने हत्या के मामले में विवादों के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा. 2006 में कोर्ट ने उन्हें सजा सुनाई, हालांकि बाद में वे बरी हुए. शिबू सोरेन ने 1980, 1989, 1991, 1996, 2002, 2004, 2009 और 2014 में दुमका लोकसभा सीट के लिए चुनावी जीत हासिल की. इस दौरान उनके बेटे हेमंत सोरेन ने झामुमो की कमान संभाली और शिबू सोरेन संरक्षक के रूप में मार्गदर्शन करते रहे. उनके समर्थक उन्हें आदिवासियों का मसीहा मानते हैं, जिन्होंने अपनी जवानी झारखंड की अस्मिता के लिए समर्पित कर दी.
